छोटी काशी के नाम से प्रसिद्घ है रसड़ा की रामलीला
1830 में पुरंदरलाल ने रसड़ा में रामलीला की रखी थी नींव
जनपद ही नहीं गैर जिले के पहुंचते है हजारों श्रद्घालु
बलिया। छोटी काशी के नाम से मसहूर रसड़ा की रामलीला अपने आप में एक अलग ही विशिष्ट पहचान रखती है। यह ऐतिहासिक रामलीला रामनगर वाराणसी के बाद दूसरा स्थान रखता है। जिसे देखने के लिये जनपद ही नहीं गैर जनपद के हजारों श्रद्धालुओं का जमावड़ा होता है। सजीव मंचन के दौरान श्रद्धालुओं के जयकारों से पूरा क्षेत्र भक्तिमय हो जाता है। इस रामलीला का गौरवमयी इतिहास रहा है।
ऐसी मान्यता है कि रामलीला की शुरूआत करने में बरनवालजाति के लोगों का योगदान रहा है। करीब 1830 में पुरंदरलाल ने रसड़ा में रामलीला की नींव रखी।
रामलीला की शुरूआत रसड़ा से पूरब दक्षिण दिशा स्थित बावली पोखरा पर हुई। सन् 1900 के समीप रामलीला बावली पोखरा से हटकर श्रीनाथ मठ परिसर में शुरू हुई। सन् 1921 से सीताराम कलवार की देखरेख में रामलीला का कार्यक्रम शुरू हुआ जो 25 वर्षो तक अनवरत चलता रहा। इसी दौरान श्रीनाथ बाबा पोेखरे की खुदाई की गयी, इन्हीं के कार्यकाल में रामलीला मैदान में दर्शकों को बैठने के लिये सीढ़ियों का निर्माण, अशोक वाटिका, पुरानी लंका का निर्माण कराया गया जो आज भी मेले की शोभा में चार चांद लगाते है। इसके बाद प्रफुल्लशंकर गुप्त की देखरेख में 1984 से 96 तक मेले का संचालन किया जाता रहा। उसके बाद से मेला कमेटी के अध्यक्षों का चुनाव कर उन्हीं की देखरेख में रामलीला एवं मेला का आयोजन होता आ रहा है। हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रतीक छोटी काशी के नाम से मसहूर रामलीला हिन्दू मुस्लिम दोनों संप्रदाय के लोग बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते है। रावण के विशालकाय पुतले को दुबिहां गाजीपुर के मुसलमान कलाकर मंटू विगत कई वर्षो से आकर्षक रूप देकर लोगों की वाहवाही बटोर रहा है।